Friday, August 31, 2018

राहुल ने ये भाषण देकर पीएम को दी 'झप्पी'

सऊदी अरब सहित दूसरे अरब देशों के कई नेता मानते हैं उसने अरब विश्व को तबाह करके रख दिया है. अल-क़ायदा और आईएस जैसे आतंकी संगठन उसकी कोख से जन्मे हैं.
आरएसएस ने पांच-सात हज़ार वर्ष पुराने भारतीय दर्शन पर आधारित जिस 'हिंदुत्व' या 'हिंदूनेस' या 'हिंदूपन' के विचार को लिया है, वह न तो वह नया है, न उसका पुर्नजन्म हुआ है.
यह उसका आविष्कार भी नहीं है. इसका 'रीलिजनdd' से भी कोई लेना-देना नहीं है. मूलत: यह वैश्विक बंधुत्व और वैश्विक कल्याण का विचार है, मुस्लिम ब्रदरहुड के संकीर्ण, हिंसक विचार से इसकी तुलना प्राचीन भारत की मेधा, बुद्धि और ज्ञान का अपमान है, उसे नकारता है.स दर्शन में खोज 'मैं' से शुरू होकर समस्त चराचर, ब्रह्मांड और उससे परे जा पहुंची जिसने सारे जड़-चेतन में एक ही एनर्जी, एक ही चेतना का साक्षात्कार किया और जिसे 'हम' में समस्त मानव जाति, प्राणिमात्र और यह समूची सृष्टि दिखाई दी जो ईश्वर की कृति है और सबके लिए है, ज़रूरत से ज़्यादा लेने पर दंडित कर सकती है.
इसलिए इसमें 'वसुधैव कुटंबकम' है, 'सर्वे सुखिन:' है और 'माता भूमि: पुत्रो़डहं पृथिव्या:' भी है. प्राचीन ऋषियों ने यह भी जाना है कि इस सत्य को, उस परमात्मा को हर कोई अपने ढंग से व्यक्त कर सकता है, नहीं भी मान सकता है.
इसलिए उन्होंने कहा कि यह सत्य एक है, विद्वान उसे अलग-अलग ढंग से कहते हैं, लेकिन जैसा कि डॉ. राधाकृष्णन ने लिखा, 'फ़िक्स्ड रिविलेशन' भी नहीं है. यह एक प्रक्रिया, अभियान और परंपरा है.
इस दर्शन में 'धर्म, 'मैं' से लेकर समस्त चराचर तक को जोड़ने वाल है तत्व है, वह एक सापेक्ष विचार है, राष्ट्रीय सदाचार! भारतीय जीवन पद्धति का आधार यह दर्शन नहीं तो और क्या है? कष्ट सारा यही है कि आरएसएस इस दर्शन, संस्कृति और उससे उपजे संस्कारों को 'हिंदू' क्यों कहता है? भारत उसके लिए 'हिंदूराष्ट्र' क्यों है?
दरअसल, रीलिजन का अर्थ 'धर्म' मान ले से यह गड़बड़ है. 'हिंदू' नाम आरएसएस ने नहीं रचा है, यह शताब्दियों से है. 'हिंदुस्तान' भी उसका दिया नाम नहीं है लेकिन वोटों के गणित में उसे सांप्रदायिक करार दे दिया गया है.
इसे सनातन कहिए या भारतीय, विचार तो यही है. चाहे शशि थरूर जैसे नेता और विचारक 'आरएसएस के हिंदुत्व' और 'भारत के हिंदुत्व' को खींचतान करके अलग करने की कोशिश करें. इस दर्शन और संस्कृति में कोई संकीर्ण राजनैतिक उद्देश्य होता, साम्राज्य क़ायम करने , सभी को एक छड़ी से हांकने की ज़रा भी मंशा होती तो समूचा विश्व इसी का होता.
हज़ारों साल में ऐसा नहीं हुआ, आरएसएस के 90 साल के अस्तित्व में भी ऐसा नहीं हुआ. हां, भारत ने अपने भीतर झांकना ज़रूर शुरू कर दिया है, जिससे आयातित विचारों की सत्ताओं की चूलें ज़रूर हिलने लगी हैं.

Wednesday, August 29, 2018

ब्लॉग: मोदी का और गांधी का राजधर्म अलग-अलग नहीं हो सकता

राहुल गांधी ने कहा कि 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जो दंगे हुए उनमें 'कांग्रेस की कोई भूमिका नहीं थी'. कांग्रेस अध्यक्ष की इस मासूमियत पर उनकी अपनी पार्टी के लोगों को भी यक़ीन नहीं हुआ.
पंजाब के कांग्रेसी मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने शिरोमणि अकाली दल के हमलों से पार्टी का बचाव करने की जगह विधानसभा में चार कांग्रेसी नेताओं का नाम लेकर कहा कि वे दंगे भड़काने में आगे-आगे थे.
1984 के सिख विरोधी दंगों के बारे में जैसी सफ़ाई राहुल गांधी ने दी है अगर उसे मान लिया जाए तो हिंसा की किसी भी बड़ी घटना में किसी की कोई भूमिका नहीं होगी, क्या कोई पार्टी अपने लेटरहेड पर लिखकर लोगों को ज़िंदा जलाने के निर्देश कार्यकर्ताओं को देगी?
अगर कांग्रेस की भूमिका ही थी तो पार्टी ने माफ़ी क्यों माँगी थी, कुछ लोगों का तो मानना रहा है कि मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाने के पीछे सिखों को मनाने की सोच थी, राहुल के बयान ने किये कराये पर पानी फेर दिया है.
जब दंगे हुए थे, राहुल गांधी तब 14 साल के थे और उन्हें अपने पिताजी की ये बात शायद याद होगी जिन्होंने दंगों के बारे में कहा था, "जब भी कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती थोड़ी हिलती है." अगर याद न हो तो ये वीडियो
राहुल के पिता राजीव गांधी का धरती हिलने वाला और नरेंद्र मोदी का क्रिया की प्रतिक्रिया वाला बयान, एक-दूसरे से बिल्कुल अलग नहीं है. गुजरात के दंगों को गोधरा में रेलगाड़ी में कारसेवकों की मौत की सहज प्रतिक्रिया साबित करने की कोशिश मोदी और बीजेपी ने संगठित तौर पर की थी.
इन दोनों में से किसी ने राजधर्म का पालन नहीं किया जिसकी सीख अटल बिहारी वाजपेयी ने 2002 के गुजरात दंगों के बाद नरेंद्र मोदी को दी थी. आप यहां देख सकते हैं.
वाजपेयी ने साफ़ शब्दों में समझाया था कि राजधर्म का पालन करने का अर्थ है कि जो सत्ता में बैठा है वह जनता के साथ जाति, धर्म या क्षेत्र के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा. न तो राजीव गांधी ने और न ही नरेंद्र मोदी ने समय पर हिंसा को रोकने की ईमानदार कोशिश की, या हिंसा करने वालों की खुलकर निंदा की.
देख सकते हैं.
अगर क्रिया-प्रतिक्रिया की थ्योरी को मान लिया जाए तो सब कुछ न्यायोचित ठहराया जा सकता है.
ज़रा घटनाओं के सिलसिले पर नज़र डालिए-
भिंडरांवाले की क्रिया पर इंदिरा गांधी की प्रतिक्रिया थी ऑपरेशन ब्लू स्टार. ब्लू स्टार से नाराज़ सिखों की प्रतिक्रिया थी इंदिरा गांधी की हत्या. हत्या की प्रतिक्रिया में भीषण दंगे हुए, अब इन दंगों में मारे गए लोगों की प्रतिक्रिया के बारे में सोचिए, सोचिए यह कितनी ख़तरनाक थ्योरी है.
गुजरात के मुसलमानों और भारत भर के सिखों ने दंगे जैसी जघन्य क्रिया पर कोई प्रतिक्रिया नहीं की. उन्होंने इसे एक बुरा सपना समझकर भुला दिया. यही वजह है कि देश चल रहा है, वर्ना क्रिया-प्रतिक्रिया वालों का बस चले तो हिंसा-प्रतिहिंसा जारी रहेगी और दोनों पक्ष कहते रहेंगे कि वे तो प्रतिक्रिया कर रहे हैं जो जायज़ है.
राहुल गांधी ने जैसे कांग्रेस को 1984 के दंगों के कलंक से मुक्त किया है उस तरह तो इमरजेंसी का कलंक भी उन्हें धो लेना चाहिए और कहना चाहिए कि इंदिरा गांधी ने देशहित में इमरजेंसी लगाई थी और किसी के साथ कुछ बुरा नहीं किया गया था, अगर किया भी गया था तो उनकी दादी ज़िम्मेदार नहीं थीं.
राहुल को शायद सोचना चाहिए था कि उनके इस बयान के बाद दंगा पीड़ितों के दिलों पर क्या गुज़रेगी? उनका ये कहना कि कांग्रेस की कोई भूमिका नहीं थी ऐसा ही है मानो लोगों में गु़स्सा था उन्होंने कुछ लोगों को मार दिया तो इसमें ऐसी कौन-सी बड़ी बात हो गई?
राजीव गांधी ने कहा था, "इंदिरा जी की हत्या के बाद देश में कुछ दंगे-फ़साद हुए, हमें मालूम है कि भारत की जनता के दिल में कितना क्रोध आया."
यह उनकी निजी क्षति थी कि उनकी मां की हत्या हुई, लेकिन उसके बाद जिन निर्दोष सिखों की हत्याएं हूईं और जिनकी संपत्ति लूटी गई उनके प्रति सहानुभूति का एक शब्द सुनने को नहीं मिला, न ही दुर्जनों या भगतों की कोई बुराई सुनाई दी. अब लंदन जाकर राहुल गांधी ने कहा है कि "यह त्रासदी थी, बहुत दुखद हिंसा थी." लेकिन वे अब भी कह रहे हैं कि उनकी पार्टी का इसमें कोई हाथ नहीं था.
अगर सिख विरोधी दंगों में कांग्रेस की भूमिका नहीं थी तो 11 अगस्त 2005 को संसद में तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने क्यों कहा था कि "इंदिरा गांधी की हत्या एक राष्ट्रीय त्रासदी थी. उसके बाद जो हुआ हमारा सिर शर्म से झुक गया."
डॉक्टर सिंह ने कहा, "मुझे सिख बिरादरी से माफ़ी मांगने में कोई संकोच नहीं है, मैं 1984 की घटना के लिए सिर्फ़ सिखों से नहीं पूरे देश से माफ़ी माँगता हूँ".
यह राहुल के लिए मौक़ा था कि वे वंशवाद की राजनीति करने का आरोप लगाने वालों को चुप करा सकते, कह सकते कि ग़लती हुई थी, कांग्रेस के सभी लोग न सही, कुछ लोग दंगे भड़काने में शामिल थे, इस ऐतिहासिक भूल से हमने सबक ली है और ऐसा आगे नहीं होगा. लेकिन अपनी दादी और पिता के कांग्रेस को दोषमुक्त करके वे वंशवाद की राजनीति के आरोप की काट नहीं कर सकते.
नरेंद्र मोदी पर नफ़रत की राजनीति करने का आरोप लगाने वाले और ख़ुद को प्यार की राजनीति का नेता कहने वाले राहुल ने दंगा पीड़ित सिखों और करोड़ों न्यायप्रिय लोगों का प्यार पाने का एक मौक़ा खो दिया है. जो बहुसंख्यक वर्चस्व की राजनीति कर रहे हैं, पीड़ित भी हैं और दबंग भी उनसे माफ़ी या ग़लती स्वीकार करने की उम्मीद भी नहीं होनी चाहिए, न ही उनकी राजनीति के लिए ऐसा करना मुफ़ीद है.
राहुल गांधी अगर ख़ुद को मोदी के सामने प्रेम और शांति का दूत दिखाना चाहते हैं तो वे ऐसा करने का एक और मौक़ा चूक गए हैं.
किसी की तकलीफ़ को मानने से इनकार करना या जिसकी वजह से तकलीफ़ पहुँची उसे बरी कर देना भी एक तरह का गुनाह ही है.
जर्मनी में दूसरे महायुद्ध के दौर में यहूदियों का बड़े पैमाने पर जनसंहार हुआ था, इस भयावह ऐतिहासिक त्रासदी पर यूरोप के ज़्यादातर देशों में बहस तक की गुंजाइश नहीं है. सिख विरोधी दंगे और यहूदियों के जनसंहार की तुलना करने का कोई बहुत मतलब नहीं है, लेकिन इसे किसी समुदाय की पीड़ा के संदर्भ में समझा जाना चाहिए.
यूरोप के 15 से ज़्यादा देशों में यह कहना अपराध है कि यहूदियों के साथ ज़्यादती नहीं हुई या उन्हें नाज़ियों ने व्यवस्थित तरीके़ से बड़ी संख्या में नहीं मारा, इसे 'हॉलोकोस्ट डिनायल' कहते हैं यानी जनसंहार से इनकार करना.
ऐसा कहने वालों की कमी नहीं है कि यह क़ानून अपने आप में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सिद्धांत के ख़िलाफ़ है, लेकिन यूरोपीय देशों का मानना है कि त्रासदी की पीड़ा को नकारना एक तरह से नफ़रत फैलाना है.
राहुल गांधी को अपने जवाब के बारे में शायद और गहराई से सोचना चाहिए था.

Sunday, August 26, 2018

中国给煤电建设松绑?

工地变成了冒着白烟的煤电厂,圆形的地基上长出了高高的冷却塔……关注煤炭问题的民间智库 在卫星照片上发现,不少曾经被政府叫停的中国煤电厂工地已在过去一年里悄然复工。

按照CoalSwarm的计算,2018年上半年,在地球影像公司  提供的卫星照片上能辨认出的中国新建和恢复建设的燃煤电厂装机规模总和达到了46700兆瓦(46.7GW)。这些正在和即将发电的电厂,将令中国煤电产能一下子增加约4%。熟悉中国煤电行业的人都知道,从2016年后,这个行业最大的问题就是过剩。难道情况已经变了吗?

煤电需求反弹

按照中国官方近日公布的上半年经济数据以及近期政策的变动,中国近期的煤电需求的确在反弹。

国家能源局发展规划司司长李福龙7月30日在新闻发布会上就表示,上半年全国煤炭消费同比增长3.1%左右,发电用煤大幅增长是煤炭消费增长的主要拉动力量。统计局数字显示,上半年中国用电量相比去年同期猛增9.4%。

与此同时,进入夏季,不少地区出现了短期用电负荷短缺的现象,山东、河南、湖南、湖北、浙江等地均有电力供需形势严峻的报道,其中山东省预计将有3000兆瓦(3GW)的供电缺口。

鉴于电力供需关系的变化,政策层面,中国也的确对煤电行业进行了一定程度的松绑。2018年5月,国家能源局允许此前被勒令停止煤电建设的陕西、湖北、江西、安徽恢复建设;还有四个省份的煤电建设也获得一定程度的解禁。

“工业用电需求的反弹似乎改变了政策制定者的态度,使他们对产能过剩更加宽容”,绿色和平能源分析师柳力( )表示。

另外,华北电力大学教授袁家海认为,一些已经建设差不多的煤电项目迟迟不能并网、没有收益,还要还贷款,这给企业和地方政府造成很大的压力,因此电力企业和地方的游说也是政策放松的重要原因。​柳力所说的政策制定者的态度指的是煤电行业过去两年的“主旋律”——去产能。

由于进入新世纪后基础设施建设等高耗能产业获得大发展,中国在2013年之前经历了一轮约12年的煤炭和电力消费快速增长期,这导致了全国各地煤电投资的急剧增长,最终造成煤电产能严重过剩,行业面临财务风险。

煤电的疯狂扩张也加剧了空气污染和部分地区的水资源紧张,从而令中央政府从经济和环境层面都不得不对煤电行业加以约束。

2016年4月,中国的最高经济规划部门发改委和最高能源主管部门国家能源局联合下发文件,要求各省严控煤电总量规模,接近一半的省(区)被要求暂缓开工建设煤电项目。2017年,能源局又一次性叫停超过100座建设中的煤电厂。

产能过剩遇上需求猛增

那么,今年电力需求的激增是否将会彻底扭转中国已经实行了两年的煤电去产能政策呢?

需要注意的是,煤电去产能政策仅仅暂时遏制了煤电行业过剩形势的继续恶化。中国的火电设备利用小时数刚刚从2016年的近50年最低谷略微回升,还远远没有回到健康的水平(每年约5500小时),甚至还没有回升到2015年的水平。换句话说,中国煤电依旧产能过剩。

另外,能源局官员李福龙也透露,由于煤价上涨,上半年中国煤电企业有一半都在亏损。整个煤电行业的营收情况的确比2017年要好,但还远不到乐观。