सऊदी अरब सहित दूसरे अरब देशों के कई नेता मानते हैं उसने अरब विश्व को
तबाह करके रख दिया है. अल-क़ायदा और आईएस जैसे आतंकी संगठन उसकी कोख से
जन्मे हैं.
आरएसएस ने पांच-सात हज़ार वर्ष पुराने भारतीय दर्शन पर आधारित जिस 'हिंदुत्व' या 'हिंदूनेस' या 'हिंदूपन' के विचार को लिया है, वह न तो वह नया है, न उसका पुर्नजन्म हुआ है.
यह उसका आविष्कार भी नहीं है. इसका 'रीलिजनdd' से भी कोई लेना-देना नहीं है. मूलत: यह वैश्विक बंधुत्व और वैश्विक कल्याण का विचार है, मुस्लिम ब्रदरहुड के संकीर्ण, हिंसक विचार से इसकी तुलना प्राचीन भारत की मेधा, बुद्धि और ज्ञान का अपमान है, उसे नकारता है.स दर्शन में खोज 'मैं' से शुरू होकर समस्त चराचर, ब्रह्मांड और उससे परे जा पहुंची जिसने सारे जड़-चेतन में एक ही एनर्जी, एक ही चेतना का साक्षात्कार किया और जिसे 'हम' में समस्त मानव जाति, प्राणिमात्र और यह समूची सृष्टि दिखाई दी जो ईश्वर की कृति है और सबके लिए है, ज़रूरत से ज़्यादा लेने पर दंडित कर सकती है.
इसलिए इसमें 'वसुधैव कुटंबकम' है, 'सर्वे सुखिन:' है और 'माता भूमि: पुत्रो़डहं पृथिव्या:' भी है. प्राचीन ऋषियों ने यह भी जाना है कि इस सत्य को, उस परमात्मा को हर कोई अपने ढंग से व्यक्त कर सकता है, नहीं भी मान सकता है.
इसलिए उन्होंने कहा कि यह सत्य एक है, विद्वान उसे अलग-अलग ढंग से कहते हैं, लेकिन जैसा कि डॉ. राधाकृष्णन ने लिखा, 'फ़िक्स्ड रिविलेशन' भी नहीं है. यह एक प्रक्रिया, अभियान और परंपरा है.
इस दर्शन में 'धर्म, 'मैं' से लेकर समस्त चराचर तक को जोड़ने वाल है तत्व है, वह एक सापेक्ष विचार है, राष्ट्रीय सदाचार! भारतीय जीवन पद्धति का आधार यह दर्शन नहीं तो और क्या है? कष्ट सारा यही है कि आरएसएस इस दर्शन, संस्कृति और उससे उपजे संस्कारों को 'हिंदू' क्यों कहता है? भारत उसके लिए 'हिंदूराष्ट्र' क्यों है?
दरअसल, रीलिजन का अर्थ 'धर्म' मान ले से यह गड़बड़ है. 'हिंदू' नाम आरएसएस ने नहीं रचा है, यह शताब्दियों से है. 'हिंदुस्तान' भी उसका दिया नाम नहीं है लेकिन वोटों के गणित में उसे सांप्रदायिक करार दे दिया गया है.
इसे सनातन कहिए या भारतीय, विचार तो यही है. चाहे शशि थरूर जैसे नेता और विचारक 'आरएसएस के हिंदुत्व' और 'भारत के हिंदुत्व' को खींचतान करके अलग करने की कोशिश करें. इस दर्शन और संस्कृति में कोई संकीर्ण राजनैतिक उद्देश्य होता, साम्राज्य क़ायम करने , सभी को एक छड़ी से हांकने की ज़रा भी मंशा होती तो समूचा विश्व इसी का होता.
हज़ारों साल में ऐसा नहीं हुआ, आरएसएस के 90 साल के अस्तित्व में भी ऐसा नहीं हुआ. हां, भारत ने अपने भीतर झांकना ज़रूर शुरू कर दिया है, जिससे आयातित विचारों की सत्ताओं की चूलें ज़रूर हिलने लगी हैं.
आरएसएस ने पांच-सात हज़ार वर्ष पुराने भारतीय दर्शन पर आधारित जिस 'हिंदुत्व' या 'हिंदूनेस' या 'हिंदूपन' के विचार को लिया है, वह न तो वह नया है, न उसका पुर्नजन्म हुआ है.
यह उसका आविष्कार भी नहीं है. इसका 'रीलिजनdd' से भी कोई लेना-देना नहीं है. मूलत: यह वैश्विक बंधुत्व और वैश्विक कल्याण का विचार है, मुस्लिम ब्रदरहुड के संकीर्ण, हिंसक विचार से इसकी तुलना प्राचीन भारत की मेधा, बुद्धि और ज्ञान का अपमान है, उसे नकारता है.स दर्शन में खोज 'मैं' से शुरू होकर समस्त चराचर, ब्रह्मांड और उससे परे जा पहुंची जिसने सारे जड़-चेतन में एक ही एनर्जी, एक ही चेतना का साक्षात्कार किया और जिसे 'हम' में समस्त मानव जाति, प्राणिमात्र और यह समूची सृष्टि दिखाई दी जो ईश्वर की कृति है और सबके लिए है, ज़रूरत से ज़्यादा लेने पर दंडित कर सकती है.
इसलिए इसमें 'वसुधैव कुटंबकम' है, 'सर्वे सुखिन:' है और 'माता भूमि: पुत्रो़डहं पृथिव्या:' भी है. प्राचीन ऋषियों ने यह भी जाना है कि इस सत्य को, उस परमात्मा को हर कोई अपने ढंग से व्यक्त कर सकता है, नहीं भी मान सकता है.
इसलिए उन्होंने कहा कि यह सत्य एक है, विद्वान उसे अलग-अलग ढंग से कहते हैं, लेकिन जैसा कि डॉ. राधाकृष्णन ने लिखा, 'फ़िक्स्ड रिविलेशन' भी नहीं है. यह एक प्रक्रिया, अभियान और परंपरा है.
इस दर्शन में 'धर्म, 'मैं' से लेकर समस्त चराचर तक को जोड़ने वाल है तत्व है, वह एक सापेक्ष विचार है, राष्ट्रीय सदाचार! भारतीय जीवन पद्धति का आधार यह दर्शन नहीं तो और क्या है? कष्ट सारा यही है कि आरएसएस इस दर्शन, संस्कृति और उससे उपजे संस्कारों को 'हिंदू' क्यों कहता है? भारत उसके लिए 'हिंदूराष्ट्र' क्यों है?
दरअसल, रीलिजन का अर्थ 'धर्म' मान ले से यह गड़बड़ है. 'हिंदू' नाम आरएसएस ने नहीं रचा है, यह शताब्दियों से है. 'हिंदुस्तान' भी उसका दिया नाम नहीं है लेकिन वोटों के गणित में उसे सांप्रदायिक करार दे दिया गया है.
इसे सनातन कहिए या भारतीय, विचार तो यही है. चाहे शशि थरूर जैसे नेता और विचारक 'आरएसएस के हिंदुत्व' और 'भारत के हिंदुत्व' को खींचतान करके अलग करने की कोशिश करें. इस दर्शन और संस्कृति में कोई संकीर्ण राजनैतिक उद्देश्य होता, साम्राज्य क़ायम करने , सभी को एक छड़ी से हांकने की ज़रा भी मंशा होती तो समूचा विश्व इसी का होता.
हज़ारों साल में ऐसा नहीं हुआ, आरएसएस के 90 साल के अस्तित्व में भी ऐसा नहीं हुआ. हां, भारत ने अपने भीतर झांकना ज़रूर शुरू कर दिया है, जिससे आयातित विचारों की सत्ताओं की चूलें ज़रूर हिलने लगी हैं.